Tuesday, June 17, 2025

कभगवद गीता अध्याय 2,

 

यहाँ भगवद गीता अध्याय 2, का विस्तृत हिन्दी व्याख्या सहित विवरण दिया गया है:


📜 मूल श्लोक (संस्कृत में):

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥


🪔 शब्दार्थ:

  • कर्मणि एव – केवल कर्म में ही
  • अधिकारः ते – तेरा अधिकार है
  • मा फलेषु कदाचन – फलों में कभी नहीं
  • मा कर्मफल-हेतुः भूः – तू कर्म के फल का कारण मत बन
  • मा ते संगः अस्तु अकर्मणि – और न ही तेरा झुकाव कर्म न करने में हो

📖 हिंदी अनुवाद:

"तुझे केवल कर्म करने का अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल का कारण मत बन और न ही कर्म न करने में आसक्ति रख।"


🔍 विस्तृत व्याख्या:

यह श्लोक भगवद गीता के सबसे प्रसिद्ध और गूढ़ श्लोकों में से एक है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को जीवन का एक गहरा सत्य बताते हैं, जो केवल युद्ध के संदर्भ में ही नहीं, बल्कि हर व्यक्ति के जीवन में लागू होता है।

1. "कर्मण्येवाधिकारस्ते" – तुझे केवल कर्म करने का अधिकार है:

इसका मतलब है कि हम अपने कर्तव्य और प्रयास पर ध्यान दें। हमारे हाथ में केवल कर्म करना है, उसे ईमानदारी, निष्ठा, और पूर्ण समर्पण से करना चाहिए।

2. "मा फलेषु कदाचन" – उसके फलों में कभी नहीं:

इसका मतलब है कि हमें फल की इच्छा या चिंता नहीं करनी चाहिए। फल हमारे नियंत्रण में नहीं होते, वे समय, परिस्थिति और परमात्मा की इच्छा पर निर्भर करते हैं।

3. "मा कर्मफलहेतुर्भूः" – तू कर्म के फल का कारण मत बन:

हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि फल मेरी वजह से ही मिला है या मिलेगा। कई बार हम अहंकार में आ जाते हैं कि "मैंने किया, इसलिए मिला।" यह सोच भी त्याज्य है।

4. "मा ते सङ्गः अस्तु अकर्मणि" – कर्म न करने में आसक्ति मत रख:

फल की चिंता से डरकर या निराश होकर कर्म से भागना भी गलत है। यह श्लोक हमें कर्तव्य से विमुख होने से रोकता है।


🧘‍♂️ शिक्षा:

  • यह श्लोक निष्काम कर्मयोग का आधार है – यानी फल की इच्छा छोड़कर कर्म करना।
  • यह हमें सिखाता है कि कर्म ही पूजा है, और जीवन में कर्म करते रहना चाहिए – निष्कलंक भाव से।
  • यदि हम हर कार्य को समर्पण भाव से, बिना स्वार्थ के करें, तो परिणाम अपने आप श्रेष्ठ होगा।

अगर आप चाहें तो मैं अगले श्लोक (2.48) या किसी अन्य अध्याय की भी इसी तरह विस्तृत व्याख्या दे सकता हूँ।

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